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आत्म-सम्मान आंदोलन के 100: तर्कवाद, समानता और सामाजिक न्याय की शताब्दी यात्रा

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परिचय

  • वर्ष 2025 में आत्म-सम्मान आंदोलन (Self-Respect Movement) के 100 वर्ष पूरे हो गए। यह आंदोलन 1925 में तमिलनाडु में ई. वी. रामासामी (पेरियार) द्वारा आरंभ किया गया था। पेरियार ने बाद में द्रविड़र कड़गम (Dravidar Kazhagam) की स्थापना की और ‘कुड़ी अरसु’ (गणराज्य) नामक तमिल साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। वे ज्योतिराव फुले और डॉ. बी. आर. अंबेडकर जैसे महान समाज सुधारकों से गहराई से प्रभावित थे। साथ ही उन्होंने केरल के प्रसिद्ध वैकोम सत्याग्रह में भी सक्रिय भाग लिया।

आत्म-सम्मान आंदोलन

  • आत्म-सम्मान आंदोलन का प्रमुख उद्देश्य जाति व्यवस्था का उन्मूलन और ब्राह्मणवादी प्रभुत्व का खंडन करना था। इस आंदोलन ने तर्कसंगत सोच (Rationalism), वैज्ञानिक दृष्टिकोण और व्यक्तिगत गरिमा (Self-Respect) को बढ़ावा दिया। इसका मकसद सामाजिक समानता की स्थापना करना और हर व्यक्ति को सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार दिलाना था। इसके उद्देश्यों को ‘नामथु कुरिक्कोल’ और ‘तिरावितक कालका लेतैयम’ जैसी पुस्तिकाओं में स्पष्ट रूप से व्यक्त किया गया।
  • आत्म-सम्मान आंदोलन की सबसे बड़ी विशेषता थी : आत्म-सम्मान विवाह की परंपरा, जो सरल, पुरोहित रहित और कानूनी रूप से मान्य थी।
  • इस आंदोलन ने देवदासी प्रथा, जातिवादी भेदभाव और विधवा पुनर्विवाह पर प्रतिबंध जैसी सामाजिक बुराइयों के खिलाफ संघर्ष किया।
  • इस आंदोलन ने महिलाओं के नेतृत्व को भी प्रोत्साहन दिया। अन्नाई मीनाम्बल और वीरमल जैसी महिला हस्तियाँ इसमें अग्रणी रहीं। अन्नाई मीनाम्बल ने ही ई. वी. रामासामी को ‘पेरियार’ (महान व्यक्ति) की उपाधि दी। डॉ. बी. आर. अंबेडकर ने भी उन्हें “मेरी बहन मीना” कहकर सम्मानित किया।

निष्कर्ष

  • आत्म-सम्मान आंदोलन ने दक्षिण भारत ही नहीं बल्कि पूरे भारत में सामाजिक न्याय, समानता और तर्कवाद की नींव को मजबूत किया। शताब्दी वर्ष (1925–2025) इस बात का प्रमाण है कि यह आंदोलन आज भी प्रासंगिक है और सामाजिक सुधार की दिशा में प्रेरणा देता है।

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