मामला क्या है?
- कर्नाटक औद्योगिक क्षेत्र विकास बोर्ड ने 2003 में बेंगलुरु-मैसूर इंफ्रास्ट्रक्चर कॉरिडोर परियोजना के निर्माण के लिए हजारों एकड़ भूमि के अधिग्रहण की अधिसूचना जारी की थी। भूमि के कुछ हिस्सों पर कब्जा कर लिया गया, लेकिन मालिकों को मुआवजे के लिए कोई आदेश पारित नहीं किया गया।
- भूमि अधिग्रहण अधिकारी को 2019 में मुआवज़ा देने के लिए न्यायालय की अवमानना की कार्यवाही का सामना करना पड़ा। हालांकि, बाद में सक्षम प्राधिकार ने मुआवजा 2003 में जमीन के प्रचलित दरों के आधार पर तय किया। जमीन मालिकों ने मौजूदा बाजार दर से मुआवजे की मांग की थी, लेकिन उच्च न्यायालय ने मांग को ठुकरा दिया था। इसके बाद उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील दाखिल की थी।
संपत्ति अधिकारों का संबैधानिक इतिहास
- संपत्ति का अधिकार, मूल रूप से भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1)(f) और अनुच्छेद 31 के तहत एक मौलिक अधिकार था। इस प्रावधान ने नागरिकों को मनमाने ढंग से वंचित किए बिना संपत्ति अर्जित करने, रखने और निपटाने की अनुमति दी।
- हालाँकि, 1978 में 44वें संशोधन ने इस स्थिति को हटा दिया, इसे अनुच्छेद 300ए के तहत एक संवैधानिक अधिकार बना दिया। संशोधन का उद्देश्य व्यक्तिगत अधिकारों की रक्षा करते हुए सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए भूमि अधिग्रहण को सुविधाजनक बनाना था।
- अनुच्छेद 300ए के अनुसार – किसी भी व्यक्ति को कानून के अधिकार के बिना उसकी संपत्ति से वंचित नहीं किया जाएगा।
- यह कानूनी अधिकार सुनिश्चित करता है कि संपत्ति के किसी भी अधिग्रहण में मालिक को उचित मुआवज़ा देने के प्रावधान सहित स्थापित कानूनी प्रक्रियाओं का पालन किया जाना चाहिए।
संपत्ति अधिकारों पर न्यायिक फैसलों का इतिहास
- ए के गोपालन बनाम मद्रास राज्य (1950) में, न्यायालय ने सार्वजनिक व्यवस्था के लिए संपत्ति जब्त करने की राज्य की शक्ति को बरकरार रखा।
- केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) मामले ने मूल संरचना सिद्धांत की स्थापना की, जिसने अप्रत्यक्ष रूप से संपत्ति अधिकारों की पुनर्परिभाषा को प्रभावित किया।
- जिलुभाई नानभाई खाचर बनाम गुजरात राज्य (1995) में न्यायालय ने फैसला सुनाया कि संपत्ति का अधिकार संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा नहीं है।
- विद्या देवी बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य (2020) मामले ने संपत्ति अधिकारों में राज्य के दायित्वों को प्रकाश में लाया।
- अल्ट्रा-टेक सीमेंट लिमिटेड बनाम मस्त रा (2024) मामले ने समय पर मुआवजे की आवश्यकता को मजबूत किया।
हाल के फैसले के निहितार्थ
- बेंगलुरु-मैसूर इंफ्रास्ट्रक्चर कॉरिडोर परियोजना के लिए अधिग्रहित भूमि के लिए लंबे समय से लंबित मुआवजे से जुड़े एक मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया है कि राज्य उचित प्रक्रियाओं का पालन किए बिना संपत्ति का अधिग्रहण नहीं कर सकता।
- न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि संपत्ति का अधिकार मानव अधिकारों से जुड़ा हुआ है, जिसमें स्वास्थ्य, आजीविका और आश्रय के अधिकार शामिल हैं।
- यह व्याख्या सार्वजनिक हितों को आगे बढ़ाते हुए राज्य द्वारा व्यक्तिगत अधिकारों का सम्मान करने की आवश्यकता को पुष्ट करती है।
- सुप्रीम कोर्ट ने विद्या देवी बनाम हिमाचल प्रदेश सरकार मामले में 2020 के मामले पारित फैसले का हवाला देते हुए कहा है कि ‘राज्य कानून के शासन द्वारा शासित एक कल्याणकारी इकाई के रूप में, संविधान द्वारा अनुमत शक्तियों से बाहर जाकर अपने अधिकार नहीं जता सकता है।
- पीठ ने अल्ट्रा-टेक सीमेंट लिमिटेड बनाम एम. राम के मामले में 2024 में पारित फैसले का भी हवाला दिया और कहा कि – भूमि मालिकों से भूमि का स्वामित्व छीनने के बाद, कानून के अनुसार, उन्हें मुआवज़े के भुगतान में देरी, संविधान के अनुच्छेद 300ए की संवैधानिक योजना की भावना और कल्याणकारी राज्य के विचार का उल्लंघन है। शीर्ष अदालत ने कहा है कि मानव अधिकारों को व्यक्तिगत अधिकारों के दायरे में माना जाता है, जैसे कि स्वास्थ्य का अधिकार, आजीविका का अधिकार, आश्रय और रोजगार का अधिकार। पीठ ने कहा है कि इसी तरह संपत्ति का अधिकार मानवाधिकारों के इस आयाम का एक बहुत बड़ा हिस्सा है।
- सुप्रीम कोर्ट ने पूर्ण न्याया देने के लिए संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपने असाधारण शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए यह व्यवस्था दी कि यदि सरकार द्वारा अधिग्रहित भूमि के लिए मुआवजे के भुगतान में अत्यधिक देरी की जाती है तो भूमि मालिक अपने जमीन का मौजूदा बाजार मूल्य के हिसाब से मुआवजा पाने का हकदार होगा। शीर्ष अदालत के इस फैसले से देश भर के कई किसानों और अन्य लोगों को राहत दिलाने के साथ-साथ पर्याप्त मुआवजा भी पाने का मौका देगा। सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ दाखिल अपील का निपटारा करते हुए यह फैसला दिया है।
- हालिया फैसले में राज्य के दायित्व पर जोर दिया गया है कि वह भूमि मालिकों को शीघ्र और पर्याप्त मुआवजा प्रदान करे। न्यायालय ने देरी के लिए कर्नाटक सरकार की निंदा की और कहा कि न्याय में देरी न्याय से वंचित करने के समान है।
- न्यायाधीशों ने भूमि के मूल्यांकन की तिथि को 2019 तक समायोजित करने के लिए अनुच्छेद 142 का इस्तेमाल किया, ताकि वर्तमान बाजार मूल्यों को ध्यान में रखते हुए उचित मुआवजा सुनिश्चित किया जा सके।
विद्या देवी बनाम हिमाचल प्रदेश सरकार व अन्य’ मामला (2020)
- हिमाचल प्रदेश सरकार द्वारा वर्ष 1967-68 में सड़क निर्माण के दौरान विद्या देवी नामक एक निरक्षर महिला की ज़मीन बिना उसकी अनुमति के अधिगृहीत कर ली गई थी।
- सर्वोच्च न्यायलय ने ‘विद्या देवी बनाम हिमाचल प्रदेश सरकार व अन्य’ मामले पर सुनवाई करते हुए विवादित ज़मीन पर पूर्ण स्वामित्व के लिये हिमाचल प्रदेश सरकार के ‘एडवर्स पजेशन’ (अनजाने में कब्ज़ा करना) के तर्क को नकार दिया।
- साथ ही न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 136 और अनुच्छेद 142 के तहत अपने अधिकार का प्रयोग करते हुए राज्य सरकार को आदेश दिया कि वह महिला को 8 सप्ताह के भीतर मुआवज़ा और अन्य कानूनी लाभ प्रदान करे।