आषाढ़ी तिरुवथिरै उत्सव: राजेन्द्र चोल प्रथम की स्मृति में एक सांस्कृतिक आयोजन

आषाढ़ी तिरुवथिरै उत्सव: राजेन्द्र चोल प्रथम की स्मृति में एक सांस्कृतिक आयोजन

  • भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा राजेन्द्र चोल प्रथम की जयंती को “आषाढ़ी तिरुवथिरै उत्सव” के रूप में मनाया जा रहा है।
  • यह उत्सव 23 जुलाई से 27 जुलाई 2025 तक तमिलनाडु के ऐतिहासिक नगर गंगैकोंडा चोलपुरम में आयोजित किया जा रहा है।
  • इस उत्सव का उद्देश्य चोल सम्राट राजेन्द्र चोल प्रथम की दक्षिण-पूर्व एशिया में ऐतिहासिक समुद्री विजय की 1000वीं वर्षगांठ तथा गंगैकोंडा चोलपुरम मंदिर के निर्माण के 1000 वर्ष पूरे होने की स्मृति को चिह्नित करना है।
  • इस महोत्सव का समापन 27 जुलाई 2025 को भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी तथा अन्य विशिष्ट अतिथियों की उपस्थिति में किया जाएगा।
  • यह आयोजन भारत की समुद्री विरासत, शिल्पकला, स्थापत्यकला और चोल साम्राज्य की सांस्कृतिक महत्ता को पुनः स्मरण कराने का एक महत्वपूर्ण अवसर है।

राजेन्द्र चोल प्रथम और चोल साम्राज्य का ऐतिहासिक योगदान

  • राजेन्द्र चोल प्रथम का शासनकाल 1014 ईस्वी से 1044 ईस्वी तक रहा।
  • उन्होंने अपने पिता राजराज चोल प्रथम के बाद चोल साम्राज्य की बागडोर संभाली और उसे दक्षिण भारत से आगे श्रीलंका, मालदीव तथा दक्षिण-पूर्व एशिया तक विस्तारित किया।
  • वे एक महान समुद्री विजेता थे, जिनकी शक्तिशाली नौसेना ने बंगाल की खाड़ी के पार अनेक क्षेत्रों में सैन्य अभियान चलाए और कूटनीतिक तथा व्यापारिक संबंध स्थापित किए।
  • राजेन्द्र चोल प्रथम ने गंगैकोंडा चोलपुरम को अपनी राजधानी बनाया और वहाँ एक भव्य शैव मंदिर का निर्माण कराया।
    यह मंदिर उनकी धार्मिक आस्था, स्थापत्य दक्षता और प्रशासनिक दूरदर्शिता का प्रतीक है।
  • गंगैकोंडा चोलपुरम मंदिर को चोल कालीन वास्तुकला का सर्वोत्तम उदाहरण माना जाता है, जिसमें सुंदर शिल्पकला, नक्काशी, कांस्य मूर्तियाँ और शिलालेख प्रमुख आकर्षण हैं।

आदि तिरुवादिरै उत्सव का धार्मिक और ऐतिहासिक महत्व

  • आषाढ़ी तिरुवथिरै उत्सव राजेन्द्र चोल प्रथम के जन्म नक्षत्र “तिरुवादिरै” (संस्कृत में आर्द्रा) के उपलक्ष्य में मनाया जाता है।
  • वर्ष 2025 में आयोजित यह उत्सव विशेष रूप से ऐतिहासिक है क्योंकि यह दो प्रमुख घटनाओं की 1000वीं वर्षगांठ को चिन्हित करता है—पहला, गंगैकोंडा चोलपुरम मंदिर के निर्माण की शुरुआत और दूसरा, दक्षिण-पूर्व एशिया में चोल नौसैनिक विजय।
  • यह उत्सव तमिल शैव भक्ति परंपरा, नायनमार संतों और शैव सिद्धांत दर्शन के प्रचार और सम्मान का भी माध्यम है।

उत्सव के आयोजन के मुख्य उद्देश्य

  • इस उत्सव का प्रमुख उद्देश्य शैव सिद्धांत के आध्यात्मिक और दार्शनिक मूल्यों को व्यापक जनसमूह तक पहुँचाना है।
  • यह उत्सव तमिल साहित्य, नृत्य, संगीत और मंदिर परंपराओं के माध्यम से तमिल सांस्कृतिक विरासत पर गर्व और जागरूकता को बढ़ावा देता है।
  • इस आयोजन के माध्यम से नायनमार संतों—जो कि शैव भक्ति आंदोलन के अग्रणी कवि-संत थे—की शिक्षाओं और रचनाओं को श्रद्धांजलि अर्पित की जाती है।
  • राजेन्द्र चोल प्रथम की स्थापत्य कला, समुद्री अभियानों और प्रशासनिक नवाचारों की स्मृति को पुनर्स्थापित करना भी इस उत्सव का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य है।

उत्सव की मुख्य गतिविधियाँ (23 से 27 जुलाई 2025 तक)

  • इस उत्सव के दौरान प्रत्येक संध्या भरतनाट्यम नृत्य प्रस्तुतियाँ आयोजित की जाएँगी, जिनका आयोजन कलाक्षेत्र फाउंडेशन द्वारा किया जाएगा।
  • इसके साथ ही दक्षिण क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र के छात्र चोल युगीन तेवरम् स्तोत्रों का गायन करेंगे।
  • साहित्य अकादमी द्वारा तेवरम् भजनों पर आधारित एक पुस्तिका का विमोचन किया जाएगा।
  • 27 जुलाई 2025 को समापन समारोह में प्रसिद्ध संगीत निर्देशक और पद्म विभूषण सम्मानित श्री इलैयाराजा द्वारा एक विशेष संगीत प्रस्तुति दी जाएगी।
  • समारोह में भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी, तमिलनाडु के राज्यपाल आर. एन. रवि तथा अन्य वरिष्ठ मंत्री भाग लेंगे।
  • भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) द्वारा चोलकालीन शैव परंपरा, मंदिर स्थापत्य और कांस्य मूर्तिकला पर आधारित एक विशेष प्रदर्शनी का आयोजन किया जाएगा।
  • साथ ही ऐतिहासिक स्थलों का सामूहिक भ्रमण भी आयोजित किया जाएगा ताकि प्रतिभागी स्थल की ऐतिहासिकता को सीधे अनुभव कर सकें।

चोल वंश की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक धरोहर

  • चोल वंश ने केवल एक विशाल साम्राज्य की स्थापना ही नहीं की, बल्कि उन्होंने भारतीय कला, स्थापत्य, धर्म और साहित्य को भी अमूल्य योगदान दिया।
  • उन्होंने शैव धर्म को संरक्षण प्रदान किया और भारतीय परंपराओं को दक्षिण-पूर्व एशिया तक फैलाने में एक सेतु का कार्य किया।
  • गंगैकोंडा चोलपुरम मंदिर, जो आज यूनेस्को द्वारा घोषित विश्व धरोहर स्थल है, राजेन्द्र चोल प्रथम की प्रशासनिक और सांस्कृतिक दूरदृष्टि का जीवंत प्रतीक है।
  • इस मंदिर में स्थित बारीक नक्काशी की गई मूर्तिकला, कांस्य प्रतिमाएँ और अभिलेखीय शिलालेख भारतीय सभ्यता और सांस्कृतिक इतिहास की अमूल्य निधि हैं।

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